श्री गुरवे नम:
हर्योल्लास-गुर्वोल्लास
चिंतन से स्मरण की ओर
मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर है;
इमां मुझे रोके है तो खेंचे है मुझे कुफ्रl
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगेll (मिर्ज़ा ग़ालिब)
मिर्ज़ा ग़ालिब को इल्हाम नहीं था कि न ईमान रोकता है न कुफ्र खींचता हैl यह तो अपनी अपनीं मन-बुद्धि के फैसले हैंl
ईमां गुरु प्रदत्त ज्ञान है, खींचना हरि कृपा है और रोका जाना मन की वह विचित्र नास्तिकता है, जिसमे मन को यह विश्वास तो हो जाता है कि भगवान हैं, उनकी कृपा का आभास भी हो जाता है किन्तु उनका स्मरण रस प्रदान करेगा यह विश्वास नहीं होताl नतीज़ा:
उट्ठे कभी घबरा के तो मैखाने हो आये,
लौट आये तो फिर बैठे याद-ए-खुदा में हमl
लेकिन ऐसा करना तो रस प्राप्ति के विरुद्ध जाना हैl
भक्ति का एक गुण है, भक्ति है कृष्णाकर्षिणीl
भक्ति की मनोदशा, उसके प्रत्येक प्रयास को भगवान देखते और परखते हैंl यदि प्रयास प्रेम मुदित मन से किया गया है तो वह भगवान को आकर्षित करता हैl
प्रेम भरे मन का एक उदाहरण हैl श्री महाराजजी अक्सर एक कथा सुनाते हैंl एक नमाज़ी थाl रोज़ पांचो वक़्त की नमाज़ प्रेमपूर्वक पढ़ता था और अल्लाह की मेहरबानियों का शुक्रिया अदा करता थाl एक दिन उसे एक ऐसा व्यक्ति मिला जिसने पीर-ओ-मुर्शिद जैसी बड़ी आडम्बर वाली पोशाक पहन रखी थीl नमाज़ी ने अदब से उससे पूछा “जनाब! क्या आप कभी खुदा से मिले हैं?” उस व्यक्ति ने झूठ ही कह दिया कि “हाँ! रोज़ ही मिलता हूँl” नमाज़ी ने कहा “आप उनसे पूछ सकते है, कि क्या उन्हें मेरी कोई नमाज़ पसंद आई?” उस व्यक्ति ने कहा “आज रात ही पूछ लूँगाl” नमाज़ी को रात भर नींद नहीं आई, वह सोचता रहा कि पता नहीं अल्लाह का क्या जवाब होगा मुझ नाचीज़ की नमाज़ पर! दूसरे दिन सुबह सुबह दौड़ा गया उस व्यक्ति के पासl उसने फिर झूठ बोल दिया कि “मियाँ! अल्लाह ने कहा कि आज तक उन्हें तुम्हारी कोई भी नमाज़ पसंद नहीं आईl” यह सुनकर नमाज़ी खुशी से नाचने लगाl उस व्यक्ति को बड़ा आश्चर्य हुआ, शायद नमाज़ी कुछ ग़लत समझ गया हो इसलिए उसने दुबारा बोला “अरे भई! अल्लाह को तुम्हारी कोई नमाज़ पसंद नहीं आई, कोई नहीं!!” नमाज़ी ने कहा “मेरे लिए यह काफी है कि अल्लाह ने मेरी हर नमाज़ देखी है, तभी तो सभी नमाजें नापसंद कींl मुझ नाचीज़, जिसे नमाज़ अदा करने की तमीज़ भी न हो उसकी हर नमाज़ अल्लाह देखे! अल्लाह कितना मेहरबान है!!”
यह है प्रेमयुक्त मनोदशा, जो है कृष्णाकर्षिणीl
ऐसी भक्ति कृष्ण को आकर्षित करती है, फिर कृष्ण भक्त का मन आकर्षित करते हैंl प्रेम की यह होड़ लगी ही रहती हैl
भक्ति कृष्णाकर्षिणी हैl हर स्मरण पर आध्यात्मिक शक्ति अविद्या के बंधन काटकर मन को श्री राधा-कृष्ण में लगाती हैl
ज्यों ज्यों मन का मलिन कटता समझ आने लगे, त्यों त्यों;
सब तज हरि भज गोविन्द राधेl तेरी सब बिगरी आपु बना देl
(कृपालु भक्ति धारा का एक छंद)
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं:
समोsहं सर्वभूतेषु न में द्वेष्योsस्ति न प्रिय:l
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्ll (9:29)
अर्थ: सम: अहं सर्व भूतेषु न मे द्वेष्य: अस्ति न प्रिय: अस्ति, ये भजन्ति मां भक्त्या; मयि ते, तेषु च अपि अहम्l
जो मेरा प्रेम पूर्वक स्मरण करते हैं, मैं उनके मन में रहता हूँ और वह मेरे मन में रहते हैंl
अंतत: केवल एक वाक्य रह जाता है:
सुमिरन कर ले मना, छिन छिन राधा रमनाl (श्री महाराजजी का अंतिम पद)
सर्व सार सारांश:
मन करू सुमिरन राधे रानी के चरनl (श्री महाराजजी की अंतिम : आदेश पद व्याख्या प्रवचन ११ मार्च २०१३)
यह है यात्रा जीवात्मा की, सबके लिए, सदा हर युग में:-
“1) मानव देह प्राप्ति, 2) दुर्लभ श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु प्राप्ति, 3) समस्त वेद-पुराणादि का निचोड़ शास्त्र सम्मत तत्व ज्ञान प्राप्ति, 4) फिर चिंतन द्वारा तत्व ज्ञान परिपक्व, 5) तब ध्यान युक्त करुण पुकार के साथ स्मरण और फिर प्रेम धन प्राप्तिl”
भक्ति धाम मनगढ़ में होली साधना शिविर २२ मार्च से आरम्भ हो चुका है, अपने अतीव सौभाग्य का स्मरण करते हुए, अधिकारी न होने पर भी सभीत मन से कृपा की आकांक्षा में एक और कदम रखना चाहता हूँl
अब प्रेम पूर्वक सद्गुरु सरकार जगद्गुरूत्तम परम कृपालु श्री कृपालुजी महाराज एवं कृपालुत्व की सीमा श्री राधा-कृष्ण का स्मरण करते हुए बोलिए राधे राधेl
इति संवाद
हर्योल्लास-गुर्वोल्लास
चिंतन से स्मरण की ओर
मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर है;
इमां मुझे रोके है तो खेंचे है मुझे कुफ्रl
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगेll (मिर्ज़ा ग़ालिब)
मिर्ज़ा ग़ालिब को इल्हाम नहीं था कि न ईमान रोकता है न कुफ्र खींचता हैl यह तो अपनी अपनीं मन-बुद्धि के फैसले हैंl
ईमां गुरु प्रदत्त ज्ञान है, खींचना हरि कृपा है और रोका जाना मन की वह विचित्र नास्तिकता है, जिसमे मन को यह विश्वास तो हो जाता है कि भगवान हैं, उनकी कृपा का आभास भी हो जाता है किन्तु उनका स्मरण रस प्रदान करेगा यह विश्वास नहीं होताl नतीज़ा:
उट्ठे कभी घबरा के तो मैखाने हो आये,
लौट आये तो फिर बैठे याद-ए-खुदा में हमl
लेकिन ऐसा करना तो रस प्राप्ति के विरुद्ध जाना हैl
भक्ति का एक गुण है, भक्ति है कृष्णाकर्षिणीl
भक्ति की मनोदशा, उसके प्रत्येक प्रयास को भगवान देखते और परखते हैंl यदि प्रयास प्रेम मुदित मन से किया गया है तो वह भगवान को आकर्षित करता हैl
प्रेम भरे मन का एक उदाहरण हैl श्री महाराजजी अक्सर एक कथा सुनाते हैंl एक नमाज़ी थाl रोज़ पांचो वक़्त की नमाज़ प्रेमपूर्वक पढ़ता था और अल्लाह की मेहरबानियों का शुक्रिया अदा करता थाl एक दिन उसे एक ऐसा व्यक्ति मिला जिसने पीर-ओ-मुर्शिद जैसी बड़ी आडम्बर वाली पोशाक पहन रखी थीl नमाज़ी ने अदब से उससे पूछा “जनाब! क्या आप कभी खुदा से मिले हैं?” उस व्यक्ति ने झूठ ही कह दिया कि “हाँ! रोज़ ही मिलता हूँl” नमाज़ी ने कहा “आप उनसे पूछ सकते है, कि क्या उन्हें मेरी कोई नमाज़ पसंद आई?” उस व्यक्ति ने कहा “आज रात ही पूछ लूँगाl” नमाज़ी को रात भर नींद नहीं आई, वह सोचता रहा कि पता नहीं अल्लाह का क्या जवाब होगा मुझ नाचीज़ की नमाज़ पर! दूसरे दिन सुबह सुबह दौड़ा गया उस व्यक्ति के पासl उसने फिर झूठ बोल दिया कि “मियाँ! अल्लाह ने कहा कि आज तक उन्हें तुम्हारी कोई भी नमाज़ पसंद नहीं आईl” यह सुनकर नमाज़ी खुशी से नाचने लगाl उस व्यक्ति को बड़ा आश्चर्य हुआ, शायद नमाज़ी कुछ ग़लत समझ गया हो इसलिए उसने दुबारा बोला “अरे भई! अल्लाह को तुम्हारी कोई नमाज़ पसंद नहीं आई, कोई नहीं!!” नमाज़ी ने कहा “मेरे लिए यह काफी है कि अल्लाह ने मेरी हर नमाज़ देखी है, तभी तो सभी नमाजें नापसंद कींl मुझ नाचीज़, जिसे नमाज़ अदा करने की तमीज़ भी न हो उसकी हर नमाज़ अल्लाह देखे! अल्लाह कितना मेहरबान है!!”
यह है प्रेमयुक्त मनोदशा, जो है कृष्णाकर्षिणीl
ऐसी भक्ति कृष्ण को आकर्षित करती है, फिर कृष्ण भक्त का मन आकर्षित करते हैंl प्रेम की यह होड़ लगी ही रहती हैl
भक्ति कृष्णाकर्षिणी हैl हर स्मरण पर आध्यात्मिक शक्ति अविद्या के बंधन काटकर मन को श्री राधा-कृष्ण में लगाती हैl
ज्यों ज्यों मन का मलिन कटता समझ आने लगे, त्यों त्यों;
सब तज हरि भज गोविन्द राधेl तेरी सब बिगरी आपु बना देl
(कृपालु भक्ति धारा का एक छंद)
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं:
समोsहं सर्वभूतेषु न में द्वेष्योsस्ति न प्रिय:l
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्ll (9:29)
अर्थ: सम: अहं सर्व भूतेषु न मे द्वेष्य: अस्ति न प्रिय: अस्ति, ये भजन्ति मां भक्त्या; मयि ते, तेषु च अपि अहम्l
जो मेरा प्रेम पूर्वक स्मरण करते हैं, मैं उनके मन में रहता हूँ और वह मेरे मन में रहते हैंl
अंतत: केवल एक वाक्य रह जाता है:
सुमिरन कर ले मना, छिन छिन राधा रमनाl (श्री महाराजजी का अंतिम पद)
सर्व सार सारांश:
मन करू सुमिरन राधे रानी के चरनl (श्री महाराजजी की अंतिम : आदेश पद व्याख्या प्रवचन ११ मार्च २०१३)
यह है यात्रा जीवात्मा की, सबके लिए, सदा हर युग में:-
“1) मानव देह प्राप्ति, 2) दुर्लभ श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु प्राप्ति, 3) समस्त वेद-पुराणादि का निचोड़ शास्त्र सम्मत तत्व ज्ञान प्राप्ति, 4) फिर चिंतन द्वारा तत्व ज्ञान परिपक्व, 5) तब ध्यान युक्त करुण पुकार के साथ स्मरण और फिर प्रेम धन प्राप्तिl”
भक्ति धाम मनगढ़ में होली साधना शिविर २२ मार्च से आरम्भ हो चुका है, अपने अतीव सौभाग्य का स्मरण करते हुए, अधिकारी न होने पर भी सभीत मन से कृपा की आकांक्षा में एक और कदम रखना चाहता हूँl
अब प्रेम पूर्वक सद्गुरु सरकार जगद्गुरूत्तम परम कृपालु श्री कृपालुजी महाराज एवं कृपालुत्व की सीमा श्री राधा-कृष्ण का स्मरण करते हुए बोलिए राधे राधेl
इति संवाद