अहं (2)
समर्थ अध्यात्मिक गुरु का जीवन-मृत्यु से कोई सम्बन्ध नहीं होताl कालातीत हरि के वैभव के साथ प्रकट गुरु, अनुयायी को अपना बनाने के लिए दर्शन लीला करते हैं और दर्शन काल के उपरान्त भी अनुयायी की मानसिक और बौद्धिक क्षमताएं; सांसारिक (आवश्यक) और अध्यात्मिक विषयों में बढ़ाने, मानस रोग दूर करने और भक्ति बढ़ाने की कृपा करते रहते हैंl साथ ही मानसिक और शारीरिक योगक्षेम भी वहन करते हैंl अनुयायी इसमें श्रद्धापूर्वक परिश्रम कर अपना योगदान करता रहे और परम अपौरुषेय लाभ लेता रहेl
अब पुन: वर्तमान विषय की चर्चाl अहं को पहचाने कैसे? उसका आश्रय कहाँ है?
हर स्थूल व सूक्ष्म का एक आश्रय होता हैl जैसे हमारा, वनस्पतियों आदि का आश्रय धरती है, पशुओं का आश्रय वृक्ष हैं आदिl
हमारे शरीर में स्थूल चरम, मांस, अस्थियों, द्रव आदि से बने यंत्र के अतिरिक्त सूक्ष्म शक्तियां निवास करती हैंl यहाँ सूक्ष्म उसे कहा जा रहा है जिसे किसी भी भौतिक यंत्र से देखा, सुना, स्पर्श किया, सूंघा आदि न जा सके, अर्थ यह कि प्रत्यक्ष प्रमाण से न अनुभव किया जा सकेl
यह शक्तियां प्रत्येक ज्ञान-विज्ञान से परे होती हैं, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान इन शक्तियों के आधीन हैं, इनके द्वारा ग्राह्य हैंl
इन सब शक्तियों का आश्रय सूक्ष्मतम आत्मा है, आत्मा की शक्ति हमारे एक सूक्ष्म अंग को प्रकाशित करती हैl
इस अंग को अंत:करण अथवा साधारण भाषा में मन कहते हैंl इस अंत:करण में चार शक्तियां निवास करती हैं “मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकारl”
प्रमाण का पूर्ण विज्ञान तो इसकी बुद्धि रुपी सूक्ष्म शक्ति की एक साधारण सी उपज हैl सभी वैज्ञानिक अविष्कार इसी सूक्ष्म बुद्धि से ही होते हैं!
जिस प्रकार शरीर के आत्मनियंत्रित कार्य आत्मा की प्राण शक्ति के द्वारा होते हैं उसी प्रकार शरीर के समस्त चेतन, अवचेतन तथा अचेतन कार्य भी आत्मा की इन्हीं शक्तियों के द्वारा होते हैंl इनके क्षीण होने पर एक मनुष्य और वनस्पति में कोई अंतर नहीं रह जाताl
भगवान की प्रकृति (माया) ने नियमों के आधीन प्राकृतिक शरीर बनाया, भगवान ने इसमें अपना दिव्य अंश आत्मा दान कीl आत्मा ने प्राकृतिक शरीर को प्राण तथा अंत:करण को सूक्ष्म शक्तियां दान कीl
अब इन शक्तियों के दान को प्राप्त करने वाले अंत:करण को भगवान ने कठपुतली नहीं बनायाl दान में प्राप्त शक्तियों से कर्म करने का स्वतंत्र अधिकार दे दिया “कर्मण्येवाधिकारस्ते” साथ ही, हर अन्य ज्ञान के सामान, धर्म-अधर्म, लक्ष्य संबंधी शिक्षा भी संसार में दे दीl
जो भी शिक्षा चाहिए योग्य शिक्षकों से सादर श्रद्धायुक्त मन-बुद्धि से प्राप्त करो, उस शिक्षा के आधार पर कर्म करो, उन्नति, अवनति जिस दिशा में चाहे प्रयास करो! कर्म करो! कर्म तो करना ही पड़ेगा! जैसे स्थूल शरीर का यंत्र जीवन पर्यंत चलता ही रहेगा वैसे ही अंत:करण भी कर्म करता ही रहेगा!!
क्रमश:..............................
